रुपये का मूल्य और विदेशी मुद्रा भंडार
एक डॉलर का मूल्य करीब 82 रुपये हो चुका है। ऐसा इस वर्ष अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व की उस नीति के पश्चात हुआ है जिसमें उसने फेडरल फंड्स की दरों में तेज इजाफा किया था और उन्हें मार्च के 0.25 फीसदी से बढ़ाकर सितंबर में 3.25 फीसदी कर दिया था। अन्य कारकों मसलन तेल कीमतों आदि ने भी मदद नहीं की है।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने भी हस्तक्षेप नहीं किया और विदेशी मुद्रा भंडार भी 3 सितंबर, 2021 के 642.45 अरब डॉलर के उच्चतम स्तर से 23 सितंबर, 2022 तक करीब 104.93 अरब डॉलर घट गया। परंतु ये आंकड़े जितना बताते हैं उससे अधिक छिपाते हैं। हमें तीन पहलुओं पर विचार करना होगा।
पहली बात, डॉलर विदेशी मुद्रा में व्यापार समाचार क्यों वाली परिसंपत्तियों के अलावा कुछ विदेशी मुद्रा भंडार यूरो, येन आदि विदेशी मुद्राओं में भी रहता है। विविधता की यह नीति अच्छी है। परंतु हुआ यह कि इन सभी मुद्राओं में काफी अधिक गिरावट आई और इसके चलते रिजर्व बैंक को विदेशी मुद्रा की हानि हुई। बहरहाल, अगर इन अन्य मुद्राओं का अवमूल्यन स्थायी न हो तो उस स्थिति में अभी जो नुकसान दिख रहा है वह आगे चलकर नहीं दिखेगा।
दूसरा, आरबीआई अपने विदेशी मुद्रा भंडार के पोर्टफोलियो में मध्यम अवधि या दीर्घावधि के जितने बॉन्ड रखे हुए था उसे उसी अनुपात में नुकसान का सामना करना पड़ा। फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढ़ाए जाने के बाद उसे नुकसान हुआ। परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर आरबीआई ने ऐसे बॉन्ड क्यों रखे थे या ऐसे में उन्हें लगातार अपने पास क्यों रखे हुए था जब यह स्पष्ट था कि ब्याज दरों में इजाफा होगा। ऐसे में उसके विदेशी मुद्रा भंडार का मूल्य कम हुआ। यह पूरे देश का नुकसान है। तीसरा, विदेशी मुद्रा भंडार में कमी इसलिए भी आई कि रुपये के मूल्य में कमी आई। हालांकि इस पहलू के बारे में सभी लोग जानते हैं लेकिन इसे भलीभांति समझा नहीं गया है।
रुपये की गिरावट को थामने की कोशिश विदेशी मुद्रा भंडार में कमी के एक तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है। इसे एक और तरह से देखा जा सकता है तथा वह यह कि विदेशी मुद्रा भंडार के उच्चतम स्तर से केवल 5.4 फीसदी हिस्सा रुपये में आई गिरावट से पिटने के लिए इस्तेमाल किया गया। यह हिस्सा और अ धिक होना चाहिए था। क्यों?
अल्पावधि के उतार-चढ़ाव की अनदेखी करें तो रुपया लगभग हर वर्ष डॉलर के मुकाबले कमजोर पड़ता है। ऐसा प्राथमिक तौर पर इसलिए है क्योंकि भारत में मुद्रास्फीति अमेरिका की तुलना में अधिक रहती है। परंतु फिलहाल हालात एकदम उलट हैं। फिलहाल भारत में मुद्रास्फीति की दर अमेरिका की तुलना में कम है। ऐसे में आदर्श स्थिति में अस्थायी रूप से ही सही रुपये का अधिमूल्यन होना चाहिए था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत रुपये का अवमूल्यन हुआ और काफी ज्यादा हुआ। बहरहाल, यह संतुलन की स्थिति नहीं है। हकीकत में यह अति जितनी अधिक होगी, अंतरिम तौर पर कुछ नुकसान के बाद हालात बदलने की प्रवृत्ति भी उतनी ही अधिक दिखेगी।
आगे चलकर देखें तो रुपये में कुछ अधिमूल्यन देखने को मिल सकता है। कम से कम रुपये का अवमूल्यन सामान्य की तुलना में कुछ कम हुआ होता। आने वाले महीनों या तिमाहियों में ऐसा देखने को भी मिल सकता है। रुपये में गिरावट के लिए विदेशी मुद्रा भंडार के कुछ हिस्से के इस्तेमाल से ऐसा हो सकता है। यदि आरबीआई ने अधिक आक्रामक ढंग से हस्तक्षेप किया होता तो शायद हम अधिक गिरावट को थाम पाते। ऐसे हस्तक्षेप मुद्रास्फीति को लेकर लचीले लक्ष्य वाली नीतिगत व्यवस्था के साथ निरंतरता वाले होते हैं।
यह सच है कि सुझाई गई नीति के साथ आरबीआई के भंडार में भी अधिक कमी आती। परंतु विदेशी मुद्रा भंडार की बुनियादी भूमिका भी तो यही है कि वह इनका इस्तेमाल उस समय किया जाए जब रुपये की कीमतों में गिरावट आ रही हो। चाहे जो भी हो अभी भी हमारा विदेशी मुद्रा भंडार इतना तो है कि संभावित चालू खाते के घाटे की 65 माह तक भरपाई कर सके। इसके नौ महीने के आयात के बराबर होने का जो वैकल्पिक मॉडल पेश किया गया है वह भ्रामक है।
कई बार यह दलील दी जाती है कि हमें रुपये को बाजार में अपना स्तर तलाश करने देना चाहिए। खासतौर पर उस समय जबकि डॉलर के मुकाबले दुनिया की अन्य मुद्राओं के मूल्य में भी कमी आ रही है और भारत को अपनी निर्यात हिस्सेदारी का बचाव करने की आवश्यकता है। यह दलील वैध है बशर्ते कि अन्य मुद्राओं में आने वाली गिरावट की प्रकृति स्थायी हो। परंतु ऐसा होना मुश्किल है। यदि वैसा हो तो रुपया भी अपेक्षाकृत स्थिर नजर आएगा।
अन्य मुद्राओं का मूल्य स्थायी रूप से कम रहने की संभावना इसलिए नहीं है क्योंकि अंतत: किसी मुद्रा की क्रय शक्ति मायने रखती है। ऐसे में कई मुद्राओं का कम मूल्य (जैसा कि इस मामले में रुपये के साथ है) हमेशा नहीं बना रह सकता। येन इसका एक सटीक उदाहरण है। फिलहाल यह डॉलर के मुकाबले 145 पर कारोबार कर रहा है।
इस आलेख में हमने अंकेक्षण, पोर्टफोलियो चयन और रुपये में आने वाली गिरावट को कम करने में विदेशी मुद्रा भंडार की वास्तव में सीमित भूमिका पर बात कर चुके हैं। बहरहाल, कई अन्य नीतियां भी हैं लेकिन वह एक अलग किस्सा है।
डेली न्यूज़
आर्थिक सर्वेक्षण में उल्लेखित व्यापार नीति के दो प्रमुख निर्णय | 07 Feb 2018 | अंतर्राष्ट्रीय संबंध
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में पिछले वर्ष की व्यापार नीति के संदर्भ में दो प्रमुख फैसलों का वर्णन किया गया है। पहला निर्णय विदेश व्यापार नीति (एफटीपी) की मध्यावधि समीक्षा से संबंधित है, जबकि दूसरा निर्णय दिसंबर 2017 में विश्व व्यापार संगठन के बहुपक्षीय समझौतों से संबंधित है। इसके अलावा सर्वेक्षण के अंतर्गत लॉजिस्टिक एवं एंटी-डम्पिंग के क्षेत्र में लिये गए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णयों के विषय में भी चर्चा की गई है।
एफटीपी मध्यावधि समीक्षा और तद्नुसार व्यापार से संबंधित नीतियाँ
Explainer : क्यों कोई देश जानबूझकर कमजोर बनाता है अपनी करेंसी, कहां और कैसे होता है इसका फायदा?
ग्लोबल मार्केट में अभी अमेरिकी डॉलर अन्य करेंसी के मुकाबले दमदार स्थिति में है. इसका फायदा भी अमेरिका को मिल रहा है, . अधिक पढ़ें
- News18Hindi
- Last Updated : October 24, 2022, 15:30 IST
हाइलाइट्स
अपनी करेंसी को जानबूझकर कमजोर करने का कारनामा हाल में ही चीन दो बार कर चुका है.
एक बार 2015 में चीन ने डॉलर के मुकबाले अपने युआन की कीमत घटाकर 6.22 कर दी थी.
साल 2019 में फिर चीन ने डॉलर के मुकाबले युआन की कीमत घटाकर 6.99 तय कर दी.
नई दिल्ली. अमूमन किसी देश की करेंसी के कमजोर होने को उसकी बिखरती अर्थव्यवस्था का सबूत माना जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ देश जानबूझकर विदेशी मुद्रा में व्यापार समाचार क्यों अपनी मुद्रा को कमजोर बनाते हैं. एक बारगी तो इस बात पर यकीन करना मुश्किल होता है कि जहां दुनियाभर के देश अपनी मुद्रा को मजबूत बनाने की जुगत में लगे रहते हैं, वहीं कोई देश क्यों अपनी करेंसी को कमजोर बनाएगा, लेकिन यही सवाल जब बाजार और कमोडिटी एक्सपर्ट से पूछा तो जवाब चौंकाने वाले थे.
आईआईएफएल सिक्योरिटीज के कमोडिटी रिसर्च हेड अनुज गुप्ता का कहना है कि ज्यादातर ऐसे देश अपनी करेंसी को जानबूझकर कमजोर बनाते हैं, जिन्हें निर्यात के मोर्चे पर लाभ लेना होता है. यानी अगर किसी देश की करेंसी कमजोर होती है, तो उसी अनुपात में उसका निर्यात सस्ता हो जाता है और उद्योगों विदेशी मुद्रा में व्यापार समाचार क्यों के पास ज्यादा उत्पादन के मौके बनते हैं. दरअसल, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ज्यादातर ग्लोबल लेनदेन डॉलर में होता है और जब किसी देश की मुद्रा कमजोर होती है तो उसका उत्पादन भी डॉलर के मुकाबले सस्ता हो जाता है और ग्लोबल मार्केट में उसकी मांग बढ़ जाती है.
चीन ने साल आठ साल में दो बार घटाया युआन का मूल्य
अपनी करेंसी को जानबूझकर कमजोर करने का कारनामा चीन दो बार कर चुका है. एक बार साल 2015 में चीन ने डॉलर के मुकबाले अपने युआन की कीमत घटाकर 6.22 कर दी थी. डॉलर के मुकाबले युआन को करीब 2 फीसदी कमजोर बनाकर चीन ने अपने निर्यात के रास्ते चौड़े कर दिए. इससे पहले चीन के निर्यात में 8.2 फीसदी की बड़ी गिरावट दिखी थी, जिसे संभालने के लिए युआन को कमजोर बनाया और अपना निर्यात सस्ता कर उसकी मांग बढ़ा ली.
इसके बाद साल 2019 में फिर चीन ने अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा युआन की कीमत घटाकर 6.99 तय कर दी. यह विवाद उस समय गहराया जब अमेरिका ने चीन के करीब 300 अरब डॉलर के निर्यात पर अपने यहां 10 फीसदी अतिरिक्त आयात शुल्क लगा दिया. इससे चीन की मुद्रा में गिरावट आई साथ ही चीन के निर्यात पर भी असर पड़ा. इसके बाद चीन के केंद्रीय बैंक पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने युआन का एक्सचेंज रेट और घटा दिया, ताकि निर्यात सस्ता कर उद्योगों को और अवसर दिलाया जा सके. चीन को इसका फायदा इसलिए भी मिला, क्योंकि ग्लोबल निर्यात में जहां अमेरिका की हिस्सेदारी 8.1 फीसदी और जर्मनी की 7.8 फीसदी है, वहीं चीन करीब दोगुना 15 फीसदी के आसपास बना हुआ है.
अर्थव्यवस्था को कैसे मिलता है कमजोर मुद्रा का लाभ
कमोडिटी एनालिस्ट और फॉरेक्स मार्केट के जानकार जतिन त्रिवेदी का कहना है कि किसी देश के अपनी मुद्रा को कमजोर बनाने का सबसे बड़ा कारण अर्थव्यवस्था को रफ्तार देना भी रहता है. हालांकि, यह कदम तभी उठाना चाहिए जब उस देश को अपना निर्यात बढ़ने का भरोसा हो और उसके निर्यात की अर्थव्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी हो. यही कारण है कि चीन दो बार अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करने के बावजूद बाजी मार गया. दरअसल, जब निर्यात बढ़ता है तो उद्योगों को भी अपना उत्पादन बढ़ाने का मौका मिलता है, जिससे नई नौकरियों और कारोबार विस्तार का माहौल बनता है. यानी कुलमिलाकर यह कदम अर्थव्यवस्था को चलायमान बनाने में मददगार होता है.
दूसरी ओर, अपनी मुद्रा की कीमत घटाने पर किसी देश को खामियाजा भी भुगतना पड़ता है. इससे आयात महंगा हो जाता है और देश में भी महंगाई का जोखिम बढ़ जाता है. साथ ही किसी देश की मुद्रा में कमजोरी आने से उसका विदेशी मुद्रा भंडार भी कम होने लगता है. भारत को ही देख लें तो साल 2022 में जहां डॉलर के मुकाबले रुपये में करीब 10 फीसदी कमजोरी आई है, वहीं विदेशी मुद्रा भंडार में भी करीब 100 अरब डॉलर की गिरावट आ चुकी है. महंगाई भी आरबीआई के 6 फीसदी के दायरे से बाहर ही चल रही, जो बीते दो महीने से 7 फीसदी के ऊपर चली गई है.
व्यापार घाटा थामने में मदद
किसी देश की करेंसी जब मजबूत होती है तो उसका निर्यात महंगा और आयात सस्ता हो जाता है. यानी आयात ज्यादा होने और निर्यात में कमी आने से उसका व्यापार घाटा भी बढ़ने लगता विदेशी मुद्रा में व्यापार समाचार क्यों है. ऐसे में उस देश के चालू खाते के घाटे पर भी असर पड़ता है. कई बार देश अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर निर्यात बढ़ा लेते हैं, जिससे व्यापार घाटे की यह खाई भी संकरी हो जाती है और चालू खाते के घाटे का बोझ भी हल्का हो जाता है.
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